मीराबाई का नाम कौन नहीं जानता ? हमारे देश के कोने-कोने में उनके रचे हुए भजन गाए जाते हैं। दूसरे विद्वानों और कवियों को यद्यपि पढ़े-लिखे लोग जानते हैं, शहर के लोगों तक ही उनका नाम प्रचलित है। लेकिन मीराबाई को अनपढ़ औरतें भी जानती हैं। उनके भजनों को बड़ी-बूढ़ी, जवान, बालिकाएं सभी बड़े चाव से गाती हैं। चक्की पीसते वक्त बड़े सवेरे उनके भजन गाए जाते हैं।
झाडू बुहारते समय महिलाएं उनके रचे पदों को गुनगुनाती रहती हैं। देव मंदिरों में आरती के समय भक्त लोग भाव-विहल होकर उन्हें गाते हैं। बड़े-बड़े गवैये और संगीतज्ञ मीराबाई के पदों को संगीतमय तान देते हुए अपना आपा खो देते हैं। मीराबाई के भजनों में एक अद्भुत मिठास है। उनके पदों में सरलता और सादगी तो कूट-कूट कर भरी है। ऐसा लगता है कि उन्हें किसी ने बनाया ही नहीं, भाव अपने-आप फूट कर पदों के रूप में बन गए। शब्द इतने आसान और सरल कि साधारण आदमी समझ जाए । अर्थ गंभीर होते हुए भी मन की भावनाएं झरने की तरह उसमें बहती ही रहती हैं।
मीरा के पदों की
यही खूबी है। मीरा ने अपने भजनों की रचना राजस्थानी भाषा में की है। उन दिनों ब्रज
भाषा के अलावा राजस्थान में भी काव्य रचना होने लगी थी। मीराबाई ने ब्रज भाषा में
भी काव्य रचना की है। जीवन के अंतिम दिनों में वह द्वारिका जाकर बस गई। वहां
उन्होंने गुजराती में पद रचना की। यों कहें कि जिस किसी भाषा में शब्द मीरा के
मुंह से निकले, वे संगीतमय होकर
पद बन गए।
मीरा महिला जगत
की सबसे ऊंचे दर्जे की कवयित्री मानी जाती हैं। उनके पदों में जबरदस्त आकर्षण है।
गहरी पीड़ा है। अथाह प्रेम है। अपूर्ण सादगी है। जबरदस्त समर्पण है।
ऐसी मीराबाई थी
कौन? जानने की बड़ी इच्छा होती
है। यों मीराबाई के बारे में लोगों के अलग-अलग मत हैं। राजस्थान के इतिहासकारों ने
इनके जन्म का समय 1551 के लगभग माना
है। मीराबाई का जन्म राठौड़ राजपूतों की मेड़तिया शाखा में हुआ था
मेड़ता गांव
अजमेर से बीस कोस पश्चिम की ओर है तथा जोधपुर से चालीस कोस उत्तर पूर्व की ओर है।
जोधपुर को बसाने वाले राव जोधाजी के चौथे पुत्र दुदाजी वीर और पराक्रमी थे। उन दिनों
मालवा के सुल्तान महमूदशाह खिलजी ने मेड़ता पर कब्जा कर रखा था। दुदाजी ने अपने
पिताजी जोधाजी की आज्ञा से मेड़ता पर आक्रमण कर खिलजी की फौज को मार भगाया और
मेड़ता पर अपना अधिकार कर लिया। मेड़ता में बस जाने से वह मेड़तिया राठौड़ कहलाने
लगे। मीराबाई इन्हीं दुदाजी की पोती थीं। दुदाजी मीराबाई को बहुत प्यार करते थे और
ज्यादातर अपने पास ही रखते थे। मीराबाई के पिता का नाम रत्नसिंह था। रत्नसिंह अपने
बाप-दादों की भांति योद्धा और वीर थे। बाबर का मुकाबला राणा सांगा ने किया। उस समय
राणा सांगा के साथ रत्नसिंह जी भी थे। बड़ी वीरता के साथ अपने देश की आजादी के लिए
लड़ते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए। मीराबाई अधिकतर अपने दादा दुदाजी के पास ही
रहती थी। दुदाजी जैसे वीर थे, वैसे ही धार्मिक
विचारों के थे। उनके पास साधु-संत आते रहते थे। धर्म-चर्चा करने में उन्हें बड़ा
रस आता था। मीराबाई बचपन से ही ऐसे वातावरण में पल रही थीं।
उसके मन पर बड़ा
प्रभाव पड़ा। वह तीक्ष्ण बुद्धि वाली तो थी ही। साधु-संतों की बात बड़े ध्यान से
सुनतीं। बड़ा सुरीला कंठ ईश्वर ने उसे दिया था। बालिका मीरा गाती तो तन्मय हो
जाती।
एक साधु राव
दुदाजी के यहां आया। कुछ दिन वहां ठहरा। उसके साथ कृष्ण की सुंदर मूर्ति थी। वह
प्रतिदिन उस मूर्ति की सेवा करता, आरती करता और भजन
गाता। मीराबाई भी खेलती-कूदती वहां पहुंच जाती। साधुओं के साथ भजन गाने लगती। भजन
गाते-गाते तन्मय हो जाती। बालिका मीरा को कृष्ण की उस मूर्ति से बड़ा लगाव हो गया।
जब तक उस मूर्ति के आगे नाचती-गाती नहीं थी, तब तक मीरा को खाना-पीना अच्छा नहीं लगता।
चातुर्मास विता
कर जब वह साधु जाने लगा तो मीराबाई ने कृष्ण की वह मूर्ति उससे
मांगी। साधु ने
देने से इंकार कर दिया। मीरा रोने लगी। साधु ने उसके रोने की परवाह नहीं की। वह
चला गया। मीराबाई ने दुख के मारे खाना-पीना छोड़ दिया। वह मूर्ति के लिए व्याकुल
हो उठी। कृष्ण की उस मूर्ति के लिए उसका मन छटपटाने लगा। वह साधु वहां से तो चला
गया परंतु उसे सपना आया कि वह इस मूर्ति को मीरा को दे दे। साधु को यह सपना
बार-बार आया। उसे भगवान की आज्ञा समझ साधु ने जाकर मूर्ति मीराबाई को सौंप दी।
मीराबाई उस मूर्ति को हृदय से लगाकर निहाल हो गई। मूर्ति के साथ खाना खाली,
मूर्ति के साथ सोती, मूर्ति के आगे नाचती, मूर्ति के आगे गाती। मूर्ति को छाती से लगाए रहती।
पड़ोस में किसी
लड़की की शादी हो रही थी। मीरा ने मां से पूछा, "मां मेरा पति कहा है ?' मां ने हंसते हुए कृष्ण की मूर्ति को दिखाते हुए कहा
"तेरा पति वह गिरधर गोपाल है।"
उसी क्षण से मीरा
गिरधर गोपाल को अपना पति मानने लग गई। एक दिन मीराबाई ने मां से कहाः
मैं तो लियो री
तराजु तोल मीरा के प्रभु गिरधर नागर आवत प्रेम के मोल ।।
मीरा ने प्रेम के
मोल पर गिरधर गोपाल ले लिया। मंदिर में कीर्तन होता। मीरा प्रेम-विह्वल होकर भजन
गाती रहतीं। उनके भजनों में, उनकी वाणी में एक
जादू था। जो सुनता, अभिभूत हो जाता।
चेतना खो देता। मीरा भक्ति विहल हो कभी उठ कर मूर्ति के आगे नाचने लग जातीं। उनकी
भक्ति की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। साधु-संत दर्शनों के लिए आने लगे। संतों को
देखते ही मीराबाई गिरधर गोपाल के आगे नाचने लगतीं ।
चित्तौड़ जैसे
राज्य की राजरानी सबके सामने नाचे, यह कैसे सहन किया
जाता। वहां के परिवार के सभी लोगों को बहुत बुरा लगा। कई बार मना किया, बहुतेरा समझाया
मतवाली तो गिरधर
गोपाल के प्रेम में मस्त थीं। उसे दीन-दुनिया से जैसे कोई सरोकार ही नहीं था। उसका
संसार इहलोक, परलोक सभी गिरधर
गोपाल में समाए हुए थे।
जब वह समझाने पर
नहीं मानी तो कहा जाता है कि राणा ने उसे विष देकर मारने की सोची। उन दिनों गद्दी
पर मीराबाई के देवर विक्रमादित्य थे। जहर का प्याला भर कर भेजा। मीराबाई विष के
प्याले को गिरधर गोपाल का चरणामृत मान, सिर लगाकर प्रेम से पी गई। विष का बिल्कुल प्रभाव न हुआ। मीरा तो मस्त हो
नाचने लगींः
विष रो प्यालो
राणो भेज्यो जाओ मीरा रे पास। कर चरणामृत पी गई म्हारे गोबिंद रे विश्वास ।। विष
रो प्यालो पी गई भजन करो राठौर। धारा मारी ना मरूं म्हारो राखन वालो और ।।
राणा ने मीरा को
मारने के कई प्रयत्न किए। जहरीले सांप भी भेजे। परंतु वे मीरा का कुछ नहीं बिगाड़
सके। वह गिरधर गोपाल को नाच कर, गाकर रिझाती
रहीं। अपने हृदय की भक्ति को उड़ेलती रही। मीरा ने खुद अपने आंतरिक भावों को अपने
पदों में गायाः
पग घुंघरू बांध
मीरा नाची रे,
मैं तो मेरे
नारायण की आप ही हो गई दासी रे, माई मैं तो सपने
में परणी गोपाल। अंग अंग हल्दी म्हें करी जी सूयें भीज्यों गात।
मीरा ने गिरधर
गोपाल को अपना पति वरण कर लिया। जीवन भर गिरधर गोपाल की वह पति भाव से पूजा करती
रहीं। जीवन भर वह गाती रहींः
मेरे तो गिरधर
गोपाल दूसरो न कोई। जा के सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई, तात मात बंधू भ्रात आपनो न कोई, छाड़ि दई कुल की कान कहा करिहै कोई, संतन ढिंग बैठ-बैठ लोक लाज खोई। अंसुवन जल सींच-सींच प्रेम
बेल बोई। अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई ।।
मीराबाई बड़ी
हुई। उनके विवाह संबंध की बातें सोची जाने लगीं। मेवाड़ के राणा उस समय के राजाओं
में सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे। चित्तौड़ के प्रसिद्ध वीर राणा सांगा के बड़े कुंबर
भोजराज के साथ संवत 1573 में मीराबाई का
विवाह हुआ। वह चित्तौड़ आई। बड़े धूमधाम से उनका स्वागत हुआ। वह ससुराल आई तब साथ
में अपने आराध्य देव गिरधर गोपाल
मीराबाई के
मेवाड़ छोड़ते ही उस देश पर अनेक तरह की विपत्तियां टूट पड़ीं। मेवाड़ वालों ने
सोचा, मीराबाई का अपमान करने से
और उनके रुष्ट होकर चले जाने से ही आपत्तियां आई हैं। उन्हें राजी करके लाने के
लिए मेवाड़ के सरदार भी द्वारिका गए। मीराबाई नहीं लौटीं। उनका देहांत द्वारिका
में ही हुआ। सरदार गिरधर गोपाल की मूर्ति चित्तौड़ ले आए। संसार के सम्राटों का
इतिहास भुला दिया जाएगा परंतु मीराबाई लोक मानस में सदा अमर रहेंगी।
को भी ले आई। उसी
मनोयोग से गिरधर की सेवा में लगी रहतीं। कुंवर भोजराज के साथ कुछ वर्षों तक
आनंदपूर्वक रहीं। दुर्भाग्य से कुछ दिनों बाद भोजराज की मृत्यु हो गई। मीराबाई
विधवा हो गई। वह रात-दिन भजन-कीर्तन और सेवा में लगी रहतीं। विधवा हो जाने पर भी
उन्होंने अपने को विधवा नहीं माना। उनके तो पति गिरधर गोपाल थे। पति भोजराज को
उन्होंने कृष्ण के रूप में देखा। उनके रंग में रची रहतीं। उनके प्रेम में मग्न
थीं। गिरधर गोपाल को रिझाती, उनके आगे नाचतीं,
पदों में अपना हृदय खोल उनके चरणों में रखतीं।
वह तो मग्न थीं गिरधर गोपाल के स्नेह मेंः
माई री में लियो
गोविंद मोल कोई कहे छाने कोई कहे चौड़े, म्हें तो लियो री बाजता ढोल, कोई कहे मंहगो
कोई कहे सूहंगों, लोक कहे मीरा भई
बावरी, न्यात कहे कुल नसी रे,
विष का प्याला राणा भेज्या पिवत मीरा हांसी रे,
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सहज मिला अविनासी रे।
मीराबाई को समाज
धिक्कारने लगा, परिवार के लोग
कलंकिनी कहने लगे। राणा अत्याचार करने लगा। उनकी सेवा-साधना में बाधाएं डाली जाने
लगीं। मीरा दुखी हो गईं। उसने चित्तौड़ छोड़कर चले जाने का निश्चय किया। वह तीर्थ
यात्रा को चल पड़ी। कृष्ण के लीला धाम वृंदावन पहुंचीं। उन्होंने देखा घर-घर कृष्ण
की पूजा है। उन्हें वृंदावन सुहावना लगा। वहां जीव गोस्वामी जी रहते थे। वह बाल
ब्रह्मचारी थे। किसी स्त्री से बात नहीं करते थे। मीराबाई ने उनके धर्म-ज्ञान की
ख्याति सुनी। उनके दर्शनों को गई। जीव गोस्वामी ने भीतर से कहलवाया हम स्त्री से
नहीं मिलते। मीराबाई सुन रही थीं। मीराबाई ने वहीं से खड़े-खड़े तत्काल उत्तर दिया,
वृंदावन में गिरधर गोपाल के सिवा दूसरा कोई
पुरुष है क्या? जीव गोस्वामी
सुनते ही बाहर आए। सम्मान से मीराबाई को अंदर लिवा ले गए। कृष्ण कथा के रस का
दोनों ने खूब स्वाद लिया।
मीराबाई वृंदावन
में कृष्ण को ढूंढती रहीं, खोजती रहीं। मीरा
बोली-
पांत-पांत
वृंदावन ढूंढियो, ढूंढ फिरी व्रज
घर की। आप तो जाय द्वारका छाए ताव मिटी सब तन की।।
मीराबाई द्वारिका
के लिए चल दीं। द्वारिका में कृष्ण मूर्ति रणछोड़ नाम से पुकारी जाती हैं। वहां वह
रणछोड़ रूप के दर्शन करती, साधु सत्संग में
रहने लगीं।
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